Monday 21 August 2023

बेरोजगार के चिट्ठी - अभिषेक भोजपुरिया

सुनो ना! तुम्हारे प्यार का नशा कोरोना वायरस से भी ज्यादा खतरनाक है। जिसका न तो कोई वस्तविक वैक्सिन बना और न ही कोई कारगर ईलाज। बावजूद तुम्हारे दिए इस बीमारी से हम खुश हैं। समय पर तेरे एहसास का आक्सीजन मिलता रहे तो दिल की धड़कन तेरी बाहों के वेंडिलेटर पर चलता रहेगा।
        हालांकि सरकार की सिरम शरीर को सफाचट करने में लगी हुई है। महँगाई के मार में मन मरुआ जा रहा है। दिन पर दिन दवाई भी अब हवाई हुए जा रहा है। मन तो बहुत है तुझे बनारस घुमाने को। परन्तु पेट्रोल अपना रोल हमारे प्यार के पटरी पर पिलर की तरह निभा रहा है। बेरोजगारी के बाजार में बैंगन की तरह हम बेहाया बने हुए हैं। मेरे रंग और सुघराई को समझ तो सब रहे हैं पर कोई अपने कराही का भर्ता बनाना नहीं चाह रहा। वो चाहें सेंटर में बैठी सेंट्रल सरकार हो या राज्य में बैठा राजा हो।

       सुनो ना! धर्म का धंधा अभी उफान पर है। बढती बेरोजागरी और खाली जेब देख कर व्याकुल मन विचलित हो रहा है। तब इस धर्म के धंधा में अंधा बन के कुद जाने को जी कर रहा है। भगवा का अगुआ बन अखबार के आईने में हम भी नजर आने लगेंगे। ललाट पर टिका व गले में गमछा होगा। हाथ के कलाई पर कलेवा बंधा होगा। पर फिर सोचते हैं कि उस वक्त तब तेरे होठ की लाली मुझे लाल‌ सलाम वाले वामी नजर आने लगेगी‌। तुझे दिया हुआ हरे रंग के शूट में तू बेरादर नजर आएगी और मेरे देश, मेरे धर्म के लिए खतरा नजर आने लगेगी। तब तुझे भी मेरे साथ कहना होगा कि 'इस देश में गर जो रहना होगा, तो जय  ...... कहना होगा।' 
        पर जैसे इन सबसे बाहर निकल अपने भारत और अपने इतिहास को मन मस्तिष्क में देख रहा हूँ तो कार्ल मार्क्स बीच में बचाव करने आ जा रहे हैं। वो बरबस ही बोल रहे हैं कि धर्म का नशा अफीम की तरह है। अब भला बताओ कि जब तुम्हारे प्यार के नशा में हम पहले से ही डूबे हैं तो ये धर्म की नशा हमें कहाँ सुट करेगी। इसलिए उस अफीम को हमें नहीं चखना जो रंगो के कारण अंगों को अलग कर रहा हो।

           अब नौकरी के लिए आस के आंगन में अंकगणित का क्लास ले रहा हूँ। बेरोजगार के ठप्पा से आजाद होना चाहता हूँ जो घर, परिवार, सामाज, सबने लगा रखा है। वो तो तुम हो जो बढती महँगाई की तरह अपना प्यार मुझ पर बढ़ाते जा रही हो और हम सरसों तेल की तरह तुम्हारे काया के कढ़ाई से भावनाओं के बदन तक लपेटाए जा रहे हैं।
         अच्छा सुनो ना! अब तो गाँव में पतझर के बाद बहार आ गये होंगे। महुआ का मादक खुशबू मन बहका रहा होगा। तब तो तुम्हे मेरी याद आती होगी। क्योंकि हमें याद है कि तुम दोपहर में बड़का गाछ के पास महुआ बिनने चली आती थी और दबे पांव पेड़ के पिछे से तुम्हे धप्पा मार के मैं डरा देता था। आम ने टिकोढ़ा ले लिए होंगे। मुझसे ढेला मार के टिकोढ़ा तोड़वाना और जब पेड़ का मालिक देख लेता तो मुझे फंसा के भाग जाना भी याद आता होगा। हम तो नहीं भूले। क्योंकि यही वो समय होता था जब हम कुछ हँस बोल बतिया लेते थे।
         खैर! अब यादों के समंदर में अंदर उतरने से दिल‌ का दर्द बढने लगेगा। इसलिए ज्ञान के गहराई में उतरने के लिए कलम को सिढ़ी बना किताबों के कुँआ में उतर जाने दो। फिर मिलेंगे हम पीसीएस के परीक्षा में। चलेंगे वहां से फिर मौर्यालोक के माॅल में। तुम काॅफी के साथ कसिदे गढ़ना और मैं चाय पर चर्चा करुँगा। 

तुम्हारा
अभिषेक भोजपुरिया 

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