Tuesday, 11 March 2025

फागुन रस छलके


आवेला बसंत पतझर के सांथ लेके,

स में झुमत रसवन्ति रात लेके,हि

या के हिलोरे हरदम बसंती बयार-

टिसेला जिया कोइली के बात लेके।

सचमुच बसंत के आवे के आहट चहू ओर देखाई देवे लागेला। हर तरफ प्रकृति अपना अंगना में लड़िका नियन ठाढ़ कइले गाछ-वृछ, पेड़-पौधा, घास-फूस के पुरान कपरा उतार के नया नेह में नहाईल, नया उमंग में मताइल आ नया रंग में रंगाइल हरियर हरियर कपरा पहिरावे के तइयारी करेले। ई नजारा देखे वाला के देखते बनेला। मन करेला कि ई दृष्य असहीं निहारत रहीं, बाकिर अइसन होला कहां। सब त महिना भर के खेल ह। एकरा अइला पर भर आंखी आदमी देखियो ना पावे जी भर के मिलियो ना पावे ताले कब दू हमनी के छोड़ के चल जाले तनिको प्रतीत ना होखे। गाछ-वृछ आपन आपनं देह पर के पुरान चोला उतार के नया चोला पहिर लेला। चिरई-चुरूंग आ माल-जाल भी आपन रोआं झार देला। चारो तरफ सरसो के पियर पियर फूल आपन पियरी से प्रकृति के सजवले लउकेला। तिसी के श्याम रंग के फूल अपना खुबसुरती से सबकर मन मोह लेला। आ मोहो काहे ना! भगवान कृष्ण भी त एही रंग के रहस जवन गोकुल में तमाम गोपियन के मन मोह लेले रहस। गहूॅं अपना गरदन में मनुष्य के मन माफिक बाली सजवले घर से बहरी निकले के तइयारी करेला।
सांचहूॅं कुछ एही तरे के सनेस लेके फागुन महिना हमनी के सोझा आ खड़ा होला। ई महिना मादकता से भरल होला। एह महिना में चिरई-चुरूंग गाछ-वृक्ष माल-जाल सब में मादकता के अंश समाहित हो जाला। त फेर भला आदमी एह से बंचित कइसे रह सकत बा। एह महिना में साठ साल के बुढ़उ बाबा से लेके सोरे साल के नवजवान तक बसंती रंग में रंगा जाले। तब त कहल जाला कि- ‘‘भर फागुन बुढ़वो देवर लागे’’। बसंती बयार अपना मादक मार से हिया हहरावेला। सबका तन मन में प्यार के मादकता उत्पन करेला। ई महिना सांचो प्यार के महिना ह।
            एकर शुरूआत हिन्दी महिना के माघ के पंचमी जवना के हमनी ‘बसंत पंचमी’ कहिले सं से शरू हो जाला। एही दिन से हमनी के भोजपुरिया माटी में फगुआ के ताल भी ठोका जाला आ ई पूरा फागुन भर चलेला। गाॅंव के बुढ़उ आ कुछ नवजवान लोग आपन गोल बना के बइठ जाले आ ढोलक झाल आ हरमुनिया के ताल पर जोगिरा आ फगुआ गावेले आ देवाल के भिती भा परदा के भीतर से दुआरी पर से झांकत कुल्ह घर के बड़ छोट लड़िका सेयान मेहरारू सुनेली। फगुआ आ जोगिरा गावे में लोग एतना मद मस्त हो जाले कि जेतना मजकुआ रिस्ता होला जवना में विशेष कर के भउजाई पर ही घंटन बइठ के गावेले आ आरा अलोता के बात भी कह देलें।
           ई महिना में सबसे अधिक वियोग भी झलकेला। जब कवनो लइकि के नया नया बियाह भइल होखे आ ओकर गवना ना भइल होखे त ओकरा पिया के दूर रहला के वियोग हिया के झकझोर देला। असहीं अगर कवनो नवही दुलहिन के पिया परदेस गइल होखस आ उ बहुत दिन से अपना धनिया के सुध ना लेले होखस आ उनका फागुन में वापस आवे के इंतजार में बइठल एगो विरहिन के व्यथा अलगे होला। जब कवनो बांस के फूनगी पर भा आम के डाली पर कवनो कोयल बोलेले त एगो बिरहीन के ओकर बोली बंदुक के गोली नियन लागेला। साॅंचो ‘‘कोयल के कूक त सारा दुनिया सुनेला बाकिर साहित्य के सुनल कुछ आउर होला। विरह बेदना में व्याकुल कवनो विरहीन के व्यथा के व्यतित करत ओह करिया कोयल के कूक खली ई कहेला कि ‘पिया हो पी कहां’।’’ ई शब्द एगो मेहरारू जवना के पति परदेस बहुत दिन से कमाए गइल बाड़े आ उ आज ले लवट के नइखन आइल सुन के अपना हिया के हिलकोरा हिये में दबा के रह जाले। तब ओकरा मूॅंह से जन कवि जमादार भाई के आवाज में निकल परेला कि-

‘‘बाबा बगइचा में कोइलर जे बोलुवे,
कि बांसवा के फुनगी पर काग।
आइल बसंत पिया नाही अइलें
कि हियरा में हुलसे ला आग।’’


होली के नाव सुन के मन में कई तरह के उमंग लहर मारे लागेला। तन में मादकता छा जाला। आँख में वासना झलके लागेला। ई त मनुष्य के बात रहल। माल जाल आं चिरई चुरूंग भी एह मादकता से बंचित ना रहस। प्रकृति के गोद में पल के बड़ा भइल गेहूँ के बाली भी आपस में हठखेली करेला। तिसी भी आपस में टकरा के झुमर गावेला। साॅंचहूँ होली के उन्माद कुछ अलग होखेला। नव विवाहित जोड़ी अपना दोस्त भा सखी सहेली से बतियावेली त ओहूमें फागुनी झलक देखाई देला। कहलो बा कि-
‘‘आज होली, काल्ह होली,
ना होली त का होली।
अंजरा होली, पंजरा होली,
अंगना होली, दुअरा होली।


       हमनी के भोजपुरिया संसकृति में होली के बहुते महत्व बा। काहे कि ई हमनी के धर्म से भी जुड़ल बा। होली से ठीक एक रात पहिले होलिका दहन होला। अइसन मान्यता बा कि भक्त प्रहलाद भगवान विष्णु के पूजा करस जवन उनकर बाप हृणकष्यप के मंजुर ना रहे। तब अपना पूत्र के मारे खातिर अपना बहिन होलिका के बोलवलन आ प्रहलाद के आग में जरावे के आदेश दिहलें। होलिका जे कि आग में ना जर सकस उ मान गइली। बाकिर भगवान विष्णु के कृपा से भक्त प्रहलाद बंच गइलें आ होलिका जर गइली। भक्त प्रहलाद के बंचला के खुशी में सारा नगर उत्सव मनावे लागल आ रंग गुलाल से एक दुसरा के रंग के भाईचारा के परिचय देहल। एक बार फेर बुराई पर अच्छाई के जीत भईल। तब से होलिका दहन आ ओकरा बिहान भइला होली के त्योहार मनावल जाला।

होली के परम्परा कई युगन से चलल आवत बा। होली भगवान राम चारो भाई आ रावण भी खेलले रहे लोग। आज भी जब गाॅंव के बुढ़उ लोग फगुआ गावे बइठेला त गावेला- ‘‘सिया निकले अवधवा कि ओर कि होलिया खेले राम लाला।’’
हमनी के समाज में कईगो फगुआ गीत पारम्परिक चलल आवत बा। जवना में पहिले भगवान के उपर ही होली गीत गा के शुरू कइल जाजा। एह से दू फायदा होला एक त भगवान के सुमिरन भी हो जाला आ फाग गीत के शुरूआत हो जाला। एगो अउर फगुआ गीत के बानगी देखीं-
‘‘राम खेलस होरी लछुमन खेलस होरी,
लंका भवन में रावण खेलस होरी।’’

ई होरी गावे के सिलसिला खाली राम सिया तक ही ना बलूक गोकुल में रास लीला रचावे वाला भगवान कृष्ण आ उनकर दिवानी राधा संग कूल गोपियन पर भी जारी रहल बा। लोग एह होरी गीत के माध्यम से सभका घर में आनन्द भाव बनल रहो एकर शुभकामना भी देला। एगो झलक देखीं-
सादा आनन्द रहो एही द्वारे, मोहन खेले होरी हो,
एक ओरी खेलस किसन कन्हाई, एक ओरी राधा गोरी हो।

एह तरे से हमनी के भोजपुरिया संस्कृति अपना सब पर्व त्योहारन के हर्षोल्लास के साथे मनावेला। जवना में होली के हुड़दंग के कुछ अलगे मजा देखे के मिलेला। सबकर तन आ मन फागुन के रंग में रंगा जाला। नवकी कनिया के पति परदेस बारे। फागुन के फगुनाहटा के मार ना सहाला आ उ फागुनी रस में रसाइल रहेली । तब उनका मूंह से निकल परेला कि-
‘‘अब त घरे आजा पिया,
हमरो करेजा जुराजा पिया,
कब तले रहीं बोल अलगे अलगे
फागुन रस छलके।’’


- अभिषेक भोजपुरिया

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