Friday 9 September 2011

लोक नाटक उद्भव आ विकास

             नाटक साहित्य के सर्वोत्तम विधा ह ! सर्वोत्तम एह से कि ई द्रिश्य साहित्य ह! एकरा के देखलो जाला आ सुनलो जाला ! आंखि आ कान के माध्यम से एकर रस सहजता पूर्वक मन मष्तिष्क के प्रभावित करेला ! एहि से एकरा के चक्षुषक्रतु आ पंचम वेद कहल जाला ! रसिक लोग ' काव्येषु नाटक रभ्यम' कहिके एकर प्रतिष्ठा बढावेला !
             जईसे शिक्षा के आधार पर शिक्षित वर्ग आ अशिक्षित वर्ग के रूप मे वर्ग विभाजन होला ओसहीं शास्त्रीय ( शिष्ठ ) नाटक आ लोक नाटक के रूप में बाटवारा बा ! शास्त्रीय नाटक आचार्य लोग के तईयार कईल कसौटी के अनुरुप होलें, जबकि लोक नाटक लोक परम्परा पर आधारित ! दुनो मनोरंजन के साधन हवे ! दुनो मे नाटकीय तत्व होलें ! बाकिर शास्त्रीय नाटक अपना विषय के गुढता, भाषा के संस्कार आ मंचिय सम्पन्नता के कारण जाहां सम्पन्न आ सुरक्षित लोग के प्रिय होलें ओहिजा ग्रामीण संस्क्रिति, ग्रामीण भाषा, स्वभाविक शैली आ सहजतया प्राप्त मंचन सुविधा के कारण लोक नाटक आम आदमी के ! 
           विषय वस्तु के द्रिष्टि से लोक नाटक ' लोक ' आ ' नाटक ' के योग से भईल बा ! एहजा लोक के अर्थ जन बा ! ई जन भी सामान्य जन के बोधक बा ! काहे कि विषिष्ट जन के नाटक के जन नाटक भा अभिजत्य नाटक आदि कहल जाला ! लोक नाटक गांव-गंवई भा शहरो के अर्धशिक्षित जन से जुरल होला !
            दर असल ई विभेद अंग्रेजी साहित्य के " Folk-Drama " से आईल बा ! अंग्रेजी साहित्य के अध्येता भार्तीय लोग जब उहां फोक ड्रामा देखलस आ आपना किहां के रामलिला आ रासलिला, जात्रा भा जातरा, जट-जटिन, विदेशिया आदि के देखलें आ तुलना कईलें त बुझाईल जे ई भारतीय फोक ड्रामा ह ! तब जा के एकर नाया नाम लोक नाटक परल ! एकरा पहिले ग्रामीण खेले समझल जात होई ! 
            एह लोक नाटक के परिभाषा देखल जाव त डा0 श्याम परमार के अनुसार- " लोक नाट्य लोक रंजन के आडम्बर हीन साधन ह, जवन नागरिकन के मंच से अपेक्षाक्रित निम्न स्तर के, पर विशाल जन के हर्षोल्लास से सम्बंधित बा !" ग्रमीण जनता मे ई परम्परा कातना जुगन से चलि आवत बा ! चुकि लोक मे ग्रामीण आ नागरिक जन सम्मिलित बारें, एह से लोक नट्य एगो मिलल जुलल जन सामाज के मंच ह ! परिस्थितियन के अभाव मे इनका विकास के ठेस जरुर पहुंचल बा, बाकि एकरा गति के एक दम से रोकल ना जा सकल ! देश के घटना एकरा के प्रभावित जरुर करेलि सं! सामाज के प्रचलित भावना एकरा में रस संचार करेली सं आ लोक भाषा एकरा अभिव्यक्ति में चार चान्द लगा देली सं ! 
               श्री इन्दु बाला देवी के अनुसार- " जवना में निम्न श्रेणी के लोगन के रिति, रुढी अन्य विश्वास के सांथे लोक कथन के प्रदर्शन होला, उ लोक नाट्य ह !" डा0 राजवंश साहाय 'हीरा' के अनुसार- " नाटक के ऐसन रूप जवन जन साधारण के मनोरंजनार्थ रचल जाला आ ई नगर मंच से भिन्न स्तर के होला ! ई लोक के मनोरंजन के अक्रित्रिम माध्यम ह, जवना मे पात्र स्वभाविक आ लोक जीवन भा कवनो प्रव्रिति विशेष के प्रतिनिधित्व करेले !"
             डा0 नागेन्द्र के अनुसार- " लोक नाटक सामुहिक अवश्यकतन आ प्रेरणन के कारन निर्मित भईला से लोक काथानक, लोक विश्वासन आ लोक तत्व के समेतले रहेला आ जीवन के प्रतिनिधित्व करेला !
              लोक नाटक के अगर उद्भव आ विकास पर नजर दौरावल जाव त विद्वान लोग के विचार बा कि मानव के स्रिष्ति के साथ ही लोक नाटक के उद्भव भइल ! काहेकि मनुष्य संकेतिक आदि के माध्यम से अपन भावना राखे लागल ! ई भावना राखले आदि रूप ह ! फिर मनुष्य जइसे-तइसे चेतना के क्षेत्र मे विकसित होखे लगल आ सामाजिक संगठ्न मे आवे लगल ओइसे-ओइसे ओकरा मे मनोरंजन के भावना पनपे लागल आ उ मनोरंजन के साधन ढुढे लागल !
           बाकिर पश्चात्य विद्वान लोग नाटक के उत्पति कुछ दोसर प्रकार से मानता लोग ! डा0 रिजले के अनुसार- " एकर उत्पति म्रितक पूजा से भइल ! उंका अनुसार प्राचिन काल मे म्रितक विरन के आत्मा के प्रसन्न करे खातिर उनकर कार्यन के अभिनय कइल जात रहे !" डा0 पिशेल के अनुसार- " कठपुतली के नाच से एकर उत्पति भइल !" किथ के अनुसार- "रितु उत्सव मे होखे वाला लोक नाट्यन से एकर उद्भव भइल !
  

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